सभी वन्य जीवों में बाघ को विशाल हृदय वाला संभ्रांत प्राणी माना जाता है। यह गर्व की बात है कि देश में सबसे ज्यादा बाघ मध्यप्रदेश में है और मध्यप्रदेश को बाघ प्रदेश का दर्जा मिला है। अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस 29 जुलाई मध्यप्रदेश के लिये विशेष महत्व का दिन है। यह दिवस अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाघों की जातियों की घटती संख्या, उनके अस्तित्व और संरक्षण संबंधी चुनौतियों के प्रति जन-जागृति के लिए मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष विश्व बाघ दिवस 29 जुलाई को मनाए जाने का निर्णय वर्ष 2010 में सेंट पीटर्सबर्ग बाघ सम्मेलन में किया गया था। इस सम्मेलन में बाघ की आबादी वाले 13 देशों ने वादा किया था कि वर्ष 2022 तक वे बाघों की आबादी दोगुनी कर देंगे। इस लक्ष्य को प्राप्त करने में मध्यप्रदेश में बाघों के प्रबंधन में निरंतरता और उत्तरोत्तर हुए सुधार बहुत महत्वपूर्ण हैं।
बाघों की संख्या में 33 प्रतिशत की वृद्धि चक्रों के बीच अब तक सबसे अधिक दर्ज की गई है, जो वर्ष 2006 से 2010 तक 21 प्रतिशत और वर्ष 2010 से 2014 तक 30 प्रतिशत थी। बाघों की संख्या में वृद्धि, वर्ष 2006 के बाद से बाघों की औसत वार्षिक वृद्धि दर के अनुरूप थी। मध्यप्रदेश में देश में सबसे अधिक संख्या में 526 बाघ हैं। इसके बाद कर्नाटक में 524 बाघ और उत्तराखंड 442 बाघ के साथ तीसरे नंबर पर है। यह देश और विशेष रूप से मध्यप्रदेश के लिए गर्व का विषय है। वर्ष 2022 की समय-सीमा से काफी पहले सेंट पीटर्सबर्ग घोषणा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से यह उपलब्धि हासिल कर ली गयी है।
मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान की संवेदनशील पहल के परिणामस्वरूप बाघों की संख्या में वृद्धि के लिये निरंतर प्रयास हो रहे हैं। बाघ रहवास वाले क्षेत्रों के सक्रिय प्रबंधन के फलस्वरूप बाघों की संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है। विश्व वन्य-प्राणी निधि एवं ग्लोबल टाईगर फोरम द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार विश्व में आधे से ज्यादा बाघ भारत में हैं। मध्य भारत भू-दृश्य भारत में बाघों के अस्तित्व के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मध्यप्रदेश के कॉरिडोर से ही उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के बाघ रिजर्व आपस में जुड़े हुए हैं।
प्रदेश में बाघों की संख्या बढ़ाने में राष्ट्रीय उद्यानों के बेहतर प्रबंधन की मुख्य भूमिका है। राज्य शासन की सहायता से 50 से अधिक गाँवों का विस्थापन किया जाकर बहुत बड़ा भू-भाग जैविक दबाव से मुक्त कराया गया है। संरक्षित क्षेत्रों से गाँवों के विस्थापन के फलस्वरूप वन्य-प्राणियों के रहवास क्षेत्र का विस्तार हुआ है।
कान्हा, पेंच और कूनो पालपुर के कोर क्षेत्र से सभी गाँव को विस्थापित किया जा चुका है। सतपुड़ा टाइगर रिजर्व का 90 प्रतिशत से अधिक कोर क्षेत्र भी जैविक दबाव से मुक्त हो चुका है। विस्थापन के बाद घास विशेषज्ञों की मदद लेकर स्थानीय प्रजातियों के घास के मैदान विकसित किये जा रहे हैं, जिससे शाकाहारी वन्य-प्राणियों के लिये वर्ष भर चारा उपलब्ध होता रहे।
सभी संरक्षित क्षेत्रों में रहवास विकास कार्यक्रम चलाया जा रहा है। सक्रिय प्रबंधन से विगत एक वर्ष में 500 से अधिक चीतलों को अधिक संख्या वाले हिस्से से कम संख्या वाले एवं चीतल विहीन क्षेत्रों में सफलता से स्थानांतरित किया गया है। इससे चीतल, जो कि बाघों का मुख्य भोजन है, उनकी संख्या में वृद्धि होगी और पूरे भू-भाग में चीतल फैल जायेंगे।
राष्ट्रीय उद्यानों के प्रबंधन में मध्यप्रदेश शीर्ष पर
मध्यप्रदेश ने टाइगर राज्य का दर्जा हासिल करने के साथ ही राष्ट्रीय उद्यानों और संरक्षित क्षेत्रों के प्रभावी प्रबंधन में भी देश में शीर्ष स्थान प्राप्त किया है। सतपुड़ा टाइगर रिजर्व को यूनेस्को की विश्व धरोहर की संभावित सूची में शामिल किया गया है।
भारत सरकार द्वारा जारी टाइगर रिज़र्व के प्रबंधन की प्रभावशीलता मूल्यांकन रिपोर्ट के अनुसार पेंच टाइगर रिजर्व ने देश में सर्वोच्च रैंक हासिल की है। बांधवगढ़, कान्हा, संजय और सतपुड़ा टाइगर रिजर्व को सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन वाले टाइगर रिजर्व माना गया है। इन राष्ट्रीय उद्यानों में अनुपम प्रबंधन योजनाओं और नवाचारी तरीकों को अपनाया गया है।
वन्य-जीव संरक्षण मामलों पर नीतिगत निर्णय लेने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा प्रभावी प्रबंधन के आकलन से संबंधित आँकड़ों की आवश्यकता होती है। ये आँकडे़ संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के विश्व संरक्षण निगरानी केंद्र में रखे जाते हैं।
टाइगर रिजर्व की प्रबंधन शक्तियों का आकलन कई मापदण्डों पर होता है- योजना, निगरानी, सतर्कता, निगरानी स्टाफिंग पैटर्न, उनका प्रशिक्षण, मानव-वन्यजीव संघर्ष प्रबंधन, सामुदायिक भागीदारी, संरक्षण, सुरक्षा और अवैध शिकार निरोधी उपाय आदि।
पेंच टाइगर रिजर्व के प्रबंधन को देश में उत्कृष्ट माना गया है। फ्रंटलाइन स्टाफ को उत्कृष्ट और ऊर्जावान पाया गया है। वन्य-जीव संरक्षण अधिनियम 1972 में दर्ज सभी मामलों में पैरवी कर आरोपियों को दंडित करने में प्रभावी काम किया गया है। मानव-बाघ और बाघ-पशु संघर्ष के मामलों में पशु मालिकों को तत्काल वित्तीय राहत दी जा रही है। साथ ही उन्हें विश्व प्रकृति निधि भारत से भी सहयोग दिलवाया जा रहा है।
बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व ने बाघ पर्यटन द्वारा प्राप्त राशि का उपयोग कर ईको विकास समितियों को प्रभावी ढंग से पुनर्जीवित किया है। वाटरहोल बनाने और घास के मैदानों के रखरखाव और वन्य-जीव निवास स्थानों को रहने लायक बनाने का कार्यक्रम भी चलाया गया है।
कान्हा टाइगर रिजर्व ने अनूठी प्रबंधन रणनीतियों को अपनाया है। कान्हा-पेंच वन्य-जीव विचरण कारीडोर भारत का पहला ऐसा कारीडोर है, जिसमें कारीडोर का प्रबंधन स्थानीय समुदायों, सरकारी विभागों, अनुसंधान संस्थानों और नागरिक संगठनों द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है। पार्क प्रबंधन ने वन विभाग कार्यालय परिसर में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी स्थापित किया है, जो वन विभाग के कर्मचारियों और आस-पास क्षेत्र के ग्रामीणों के लिये लाभदायी सिद्ध हुआ है।
पन्ना टाइगर रिजर्व ने बाघों की आबादी बढ़ाने में पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित किया है। शून्य से शुरू होकर अब इसमें 25 से 30 बाघ हैं। यह भारत के वन्यजीव संरक्षण के इतिहास में एक अनूठा उदाहरण है। सतपुड़ा बाघ रिजर्व में सतपुड़ा नेशनल पार्क, पचमढ़ी और बोरी अभ्यारण्य से 42 गाँव को सफलतापूर्वक दूसरे स्थान पर बसाया गया है। यहाँ सोलर पंप और सोलर लैंप का प्रभावी उपयोग किया जा रहा है। वन्य जीव संरक्षण में अत्याधुनिक तकनीकी का इस्तेमाल करने की पहल करते हुए पन्ना टाइगर रिजर्व ने “ड्रोन स्क्वाड” का संचालन करना शुरू कर दिया है। प्रत्येक महीने “ड्रोन स्क्वाड” संचालन की मासिक कार्य- योजना तैयार की जाती है। इससे वन्य जीवों की खोज, उनके बचाव, जंगल की आग का स्त्रोत पता लगाने और उसके प्रभाव की तत्काल जानकारी जुटाने, संभावित मानव-पशु संघर्ष के खतरे को टालने और वन्य जीव संरक्षण संबंधी कानूनों का पालन करने में मदद मिल रही है। पन्ना टाइगर रिजर्व में ड्रोन दस्ता काफी उपयोगी सिद्ध हो रहा है।